हिंदी एक भाषा
निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति कौ मूल। बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय को सूला।।
१४ सितंबर ,हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता हैं। यहाँ पर सवाल ये उठता हैं की हिंदी को इस दिवस की आवश्यकता ही क्यों पड़ी ? पूरे वर्ष का सिर्फ एक दिन हिंदी के लिए ,ऐसा क्यों ? जगह -जगह कवि सम्मलेन ,गोष्ठि ,वाद - विवाद प्रतियोगिता ,हिंदी पर लेख इत्यादि सिर्फ एक दिन ही क्यों ? क्या हम सभी जो हिंदी प्रेमी हैं वो वर्ष भर हिंदी को बढ़ावा नहीं दे सकते हैं ? इस काम को करने के लिए हमें अलग से समय निकालने की जरुरत नहीं है। बस हमारा एक संकल्प ही काफी हैं हिंदी के लिए। ये संकल्प जरूर थोड़ा कठिन है इस भूमंडलीकरण के दौर में परंतु नामुमकिन नहीं। हम सभी को अपने २४ घंटे में से ३० मिनट सिर्फ और सिर्फ हिंदी शब्दो का ही प्रयोग करने की कोशिश करनी चाहिए। इस ३० मिनट में किसी और भी भाषा का मिश्रण न करें। चूँकि हिंदी को बढ़ावा देने का उम्दा काम गूगल और उसकी टीम कर रही है जो सराहनीय है। श्री अटल बिहारी वाजपेयी पहले भारतीय थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ मे पहली बार हिंदी में भाषण देेकर सभी को चौंका दिया था। उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाये उतनी कम है। हम सभी को एक छोटा सा प्रयास हिंदी के लिए अवश्य करना चाहिये।परन्तु अपने ही देश में अपनी राष्ट्रभाषा को कितना तिरस्कृत होना पड़ रहा है। हिंदी का भविष्य उज्जवल है और उज्जवल रहेगा, इसी आशा के साथ मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से प्रयासरत रहुँगी। आइये हम जानते है की हमारी राष्ट्र भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई।
भाषा नदी की तरह चंचल है। यह रुकना नहीं जानती। यदि कोई इसे बलपूर्वक रोकना चाहे , तो यह
(भाषा) उसके बन्धन को तोड़ आगे निकल जाती है। यह उसकी स्वाभाविक प्रकृति और प्रवृति है। हर देश की भाषा के इतिहास में ऐसी बात देखी जाती है।
भारत एक प्राचीन देश है। यहाँ के लोग भिन्न - भिन्न कालों में भिन्न - भिन्न भाषाएँ बोलते और लिखते आये हैं। संस्कृत इस देश की सबसे पुरानी भाषा है , जिसका व्यवहार हमारे पुराने ऋषि - मुनियों , विद्वानों और कवियों ने समय - समय किया है। इसका प्राचीनतम रूप संसार की सर्वप्रथम कृति 'ऋग्वेद' में देखने को मिलता है। संस्कृत को 'आर्यभाषा' या 'देवभाषा' भी कहते हैं। यह आर्यभाषा , अनुमान है , लगभग 3500 वर्ष पुरानी है। हिंदी इसी आर्यभाषा 'संस्कृत' की उत्तराधिकारिणी है , जिसकी उत्पत्ति की कथा निम्नलिखित है -
भारतीय आर्यभाषा संस्कृत का इतिहास साढ़े तीन हजार वर्षों का है। इस इतिहास को तीन कालो में बाँटा गया है -------
1. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा - काल (1500 ई० पू० - 500 ई० पू०)
2. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा - काल (500 ई० पू० -1000 ई०)
3. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा -काल (1000 ई० - आज तक )
इन तीन कालों का संक्षिप्त भाषिक परिचय इस प्रकार है - प्रथम काल में चारों वेद , ब्राह्मण और उपनिषदों की रचना हुई , जो वैदिक संस्कृत में लिखे गये हैं। इन ग्रंथों की भाषा का रूप एक नहीं है। भाषा का सबसे पुराण रूप 'ऋग्वेदसंहिता' में पाया जाता है। लोगों का कहना है की वैदिक संस्कृत का सबसे पुराना रूप तब का है जब आर्य पंजाब के आसपास निवास करते थे। फिर आर्य आगे बढ़े। इसी तरह वे पूरब की ओर बढ़ते गए और वैदिक भाषा का क्रमशः विकास होता गया। यह भाषा बोलचाल की नहीं , साहित्यिक थी , विद्वानों और मनीषियों की थी।
दर्शन - ग्रंथों के अतिरिक्त संस्कृत का उपयोग साहित्य में भी हुआ है। इसे 'लौकिक संस्कृत' कहते है। इसमें रामायण , महाभारत , नाटक , व्याकरण आदि लिखे गए। पाणिनि और कात्यायन ने संस्कृत भाषा के बिगड़ते रूप का नवीन संस्करण किया , उसे परिनिष्ठित किया और पण्डितों के मानक रूप प्रस्तुत किया। विदेशी विद्वानों ( हार्नली , ग्रियर्सन तथा वेबर ) ने इस संस्कृत को बोलचाल की भाषा नहीं माना , किन्तु डॉ० भाण्डारकर और डॉ० गुणे ने इस मत का खंडन किया है। सच तो यह है कि साहित्य की भाषा बोलचाल की भाषा से थोड़ी भिन्न होती है। इस दृष्टि से लौकिक संस्कृत भाषा बोलचाल की भाषा से निश्चय ही दूर थी। किन्तु शिष्ट भाषा 'बोली' से बिलकुल अलग नहीं होती। दोनों का आदान - प्रदान होता रहता है। प्रथम काल की प्राचीन भारतीय आर्यभाषा की कुछ भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार है ----
हिंदी भाषा की उत्पत्ति
भाषा नदी की तरह चंचल है। यह रुकना नहीं जानती। यदि कोई इसे बलपूर्वक रोकना चाहे , तो यह
(भाषा) उसके बन्धन को तोड़ आगे निकल जाती है। यह उसकी स्वाभाविक प्रकृति और प्रवृति है। हर देश की भाषा के इतिहास में ऐसी बात देखी जाती है।
भारत एक प्राचीन देश है। यहाँ के लोग भिन्न - भिन्न कालों में भिन्न - भिन्न भाषाएँ बोलते और लिखते आये हैं। संस्कृत इस देश की सबसे पुरानी भाषा है , जिसका व्यवहार हमारे पुराने ऋषि - मुनियों , विद्वानों और कवियों ने समय - समय किया है। इसका प्राचीनतम रूप संसार की सर्वप्रथम कृति 'ऋग्वेद' में देखने को मिलता है। संस्कृत को 'आर्यभाषा' या 'देवभाषा' भी कहते हैं। यह आर्यभाषा , अनुमान है , लगभग 3500 वर्ष पुरानी है। हिंदी इसी आर्यभाषा 'संस्कृत' की उत्तराधिकारिणी है , जिसकी उत्पत्ति की कथा निम्नलिखित है -
भारतीय आर्यभाषा संस्कृत का इतिहास साढ़े तीन हजार वर्षों का है। इस इतिहास को तीन कालो में बाँटा गया है -------
1. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा - काल (1500 ई० पू० - 500 ई० पू०)
2. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा - काल (500 ई० पू० -1000 ई०)
3. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा -काल (1000 ई० - आज तक )
इन तीन कालों का संक्षिप्त भाषिक परिचय इस प्रकार है - प्रथम काल में चारों वेद , ब्राह्मण और उपनिषदों की रचना हुई , जो वैदिक संस्कृत में लिखे गये हैं। इन ग्रंथों की भाषा का रूप एक नहीं है। भाषा का सबसे पुराण रूप 'ऋग्वेदसंहिता' में पाया जाता है। लोगों का कहना है की वैदिक संस्कृत का सबसे पुराना रूप तब का है जब आर्य पंजाब के आसपास निवास करते थे। फिर आर्य आगे बढ़े। इसी तरह वे पूरब की ओर बढ़ते गए और वैदिक भाषा का क्रमशः विकास होता गया। यह भाषा बोलचाल की नहीं , साहित्यिक थी , विद्वानों और मनीषियों की थी।
दर्शन - ग्रंथों के अतिरिक्त संस्कृत का उपयोग साहित्य में भी हुआ है। इसे 'लौकिक संस्कृत' कहते है। इसमें रामायण , महाभारत , नाटक , व्याकरण आदि लिखे गए। पाणिनि और कात्यायन ने संस्कृत भाषा के बिगड़ते रूप का नवीन संस्करण किया , उसे परिनिष्ठित किया और पण्डितों के मानक रूप प्रस्तुत किया। विदेशी विद्वानों ( हार्नली , ग्रियर्सन तथा वेबर ) ने इस संस्कृत को बोलचाल की भाषा नहीं माना , किन्तु डॉ० भाण्डारकर और डॉ० गुणे ने इस मत का खंडन किया है। सच तो यह है कि साहित्य की भाषा बोलचाल की भाषा से थोड़ी भिन्न होती है। इस दृष्टि से लौकिक संस्कृत भाषा बोलचाल की भाषा से निश्चय ही दूर थी। किन्तु शिष्ट भाषा 'बोली' से बिलकुल अलग नहीं होती। दोनों का आदान - प्रदान होता रहता है। प्रथम काल की प्राचीन भारतीय आर्यभाषा की कुछ भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार है ----
- भाषा योगात्मक थी ,
- शब्दों में धातुओं का अर्थ प्रायः सुरक्षित था ,
- भाषा अपेक्षाकृत अधिक नियमबद्ध थी ,
- भाषा संगीतात्मक थी ,
- तीन लिंग और तीन वचन थे ,
- पदों का स्थान निश्चित नहीं था ,
- शब्द भण्डार में तत्सम शब्दों की संख्या अधिक थी ,
- दक्षिण के अनेक द्रविड़ शब्दों का उपयोग होने लगा था।
- प्रथम अवस्था में (500 ई० पू० - ईसवी के आरम्भ तक ) पालि और शिलालेख प्राकृत सामने आई।
- दूसरी अवस्था में (ईसवी के आरम्भ से 500 ई० तक ) अनेक प्रकार की प्राकृतों का और
- तीसरी अवस्था में ( 500 ई० से 1000 ई० तक ) अपभ्रंशों का विकास हुआ।
पालि भारत की प्रथम 'देशभाषा' है। इसे सबसे पुरानी प्राकृत भी कहते है। इसी भाषा में भगवान बुद्ध और उनके अनुनायियों ने जनसाधारण को उपदेश दिए थे। सिंघल या श्रीलंका लोग 'पालि' को मागधी कहते हैं , क्योंकि इस भाषा की सृष्टि मगध में हुई थी। इसमें तत्कालीन अनेक बोलियों के तत्व वर्तमान है। इसमें तद्भव शब्दों का प्रयोग अधिक हुआ है।
पहली सदी से 500 ई० तक उत्तरभारत के भिन्न - भिन्न भागों में जिस भाषा का व्यवहार अधिक हुआ , उसे प्राकृत भाषा कहते है। आचार्य हेमचन्द्र इसे संस्कृत से निकली भाषा मानते हैं। सामान्य मत यह है कि वह भाषा जो , असंस्कृत थी , बोलचाल की थी , पंडितों में प्रचलित नहीं थी , सहज ही बोली और समझी जाती थी , स्वभावतः 'प्राकृत' कहलायी। भाषाविज्ञान ने प्राकृतों के पाँच प्रमुख भेद स्वीकार किये है -
- शौरसेनी
- पैशाची
- महाराष्ट्री
- अर्द्धमागधी और
- मागधी
शौरसेनी प्राकृत मथुरा या शूरसेन - जनपद के आसपास बोली जाती थी। यह 'मध्यदेश' की प्रमुख भाषा थी , जिसपर संस्कृत का प्रभाव था। 'मध्यदेश' संस्कृत का मुख्य केंद्र था। बाद में यही हिंदी का मूल केंद्र या गढ़ बना। पैशाची प्राकृत उत्तर - पश्चिम में कश्मीर के आसपास की भाषा थी।
महाराष्ट्री प्राकृत का मूल स्थान महाराष्ट्र है। मराठी का विकाश इसी से हुआ है।
अर्द्धगामी प्राकृत का क्षेत्र मागधी और शौरसेनी के बीच का है। यह प्राचीन कोशल के आसपास प्रचलित थी। इस भाषा का प्रयोग अधिकतर जैनसाहित्य में हुआ है।
मागधी प्राकृत मगध के आसपास प्रचलित थी।
1000 से भारतीय आर्यभाषा नए युग में प्रवेश करती है। मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा का चरम विकास 'अपभ्रंश' में हुआ। जब वररुचि जैसे प्राकृत के वैयाकरणों ने प्राकृतों को व्याकरण के सांचे में ढाल दिया , लोकभाषा (अपभ्रंश ) ने परिनिष्ठित प्राकृतों के विरुद्ध विद्रोह किया। यह वस्तुतः पण्डितों की भाषा पर जनता की भाषा की विजय थी , जो अपभ्रंशों में फलवती हुई। अपभ्रंश के अनेक नाम प्रचलति हैं - ग्रामीण भाषा , देशी , देशभाषा , अपभ्रंश , अवहंस , अवहत्थ , अवहट्ठ , अवहठ , अवहट्ट आदि। अपभ्रंश का अर्थ ही है बिगड़ा हुआ , गिरा हुआ , भ्रष्ट। ये नाम पण्डितों द्वारा दिए गए थे , जिन्हें लोकभाषा सदा इसी रूप में दिखाई पड़ती रही। भारतीय भाषा के इतिहास में 500 ई० 1000 ई० तक के काल को 'अपभ्रंशकाल' कहा गया है। आधुनिक आर्यभाषाओं (हिंदी , बँगला , गुजराती , मराठी , पंजाबी , उर्दू , उड़िया आदि ) की उत्पत्ति इन्हीं अपभ्रंशों से हुई है। एक प्रकार से ये अपभ्रंश भाषाएँ प्राकृत भाषाओं और आधुनिक भारतीय भाषाओं के बिच की कड़ियाँ हैं। प्राकृत भाषाओं की तरह अपभ्रंश के परिनिष्ठित रूप का विकास भी 'मध्यदेश' में ही हुआ था। इसपर अन्य रूपों का प्रभाव भी पड़ा है। हिंदी का जन्म इसी मध्यदेश में संस्कृत , प्राकृत और अपभ्रंश के योग से हुआ।
उत्तरभारत में अपभ्रंश के सात भेद या रूप प्रचलित थे , जिनसे आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ। ये सात प्रकार के अपभ्रंश इस प्रकार है , जिनके सामने उससे जनमी आधुनिक भाषाओं के नामों का उल्लेख किया गया है -------
अपभ्रंश आधुनिक भारतीय भाषाएँ
- शौरसेनी अपभ्रंश पश्चिमी हिंदी , राजस्थानी , ब्रजभाषा , खड़ीबोली
- पैशाची अपभ्रंश लहँदा , पंजाबी
- ब्राचड अपभ्रंश सिन्धी
- खस अपभ्रंश पहाड़ी , कुमायूँनी , गढ़वाली
- महाराष्ट्री अपभ्रंश मराठी
- अर्द्धमागधी अपभ्रंश पूर्वी हिंदी , अवधी , बोघली , छत्तीस गढ़ी
- मागधी अपभ्रंश बिहारी , बँगाली , उड़िया , असमिया
आप के द्वारा दी गई जानकारी बहुत ही शिक्षाप्रद है- राष्ट्रिय प्रतिज्ञा
ReplyDeleteदेखे - धन्यवाद